Monday, December 13, 2010

गज़ल 3

मेरा दिल है जैसे धरती, सब कुछ इसके अंदर है
पर्वत-समतल, हरियल-बंजर, खाईं और समंदर है
निगल रहा है धीरे-धीरे हसीं-खुशी का हर लमहा
यह कोई बेचैन समय है या फिर कोई अजगर है
प्रातः के बारे में यह भी एक कल्पना है प्यारी
चंदा की चाँदनी प्रश्न थी यह सूरज का उत्तर है
वैसे तो दुनिया को अक्सर भला-बुरा कह लेता हूँ
लेकिन मेरा मन कहता है सब कुछ केवल सुंदर है
ऐसे ही कवि नहीं हुआ है उसने पीड़ा झेली है
कभी सजल है कभी अनल है इसीलिए मन उर्वर है

गज़ल 2

रिश्ते-नातों से ही चोट खाये हुए
लोग हतप्रभ खड़े मुँह बनाए हुए
तेज़ रफ्तार है आज ज़्यादा हवा
पेड़ शाखों का सिगनल उठाए हुए
इसके बस्ते में दुनिया का कितना वज़न
कल का बच्चा कमर है झुकाये हुए
कुछ रूमाले हिलीं कुछ निगाहें भरीं
रेल चल दी कहानी छुपाये हुए
ये जो झंडा उठाए खड़ी भीड़ है
लोग शामिल हैं इसमें सताये हुए।

गजल 1

दिलों की मैल धोना चाहते हैं धो नहीं पाते
बहुत से लोग रोना चाहते हैं रो नहीं पाते
ख़यालों की बदौलत ही कोई कविता नहीं उगती
अगर एहसास की धरती पे उसको बो नहीं पाते
ये रातें अपना दुखड़ा लेके आकर बैठ जाती हैं
थकन से चूर रहते हैं मगर हम सो नहीं पाते
तुम्हारी याद अक्सर माँगती रहती है तन्हाई
गमों की भीड़ इतनी है कि तन्हा हो नहीं पाते